ज़िन्दगी क्या कहती है...?



हर घड़ी बदल रही है रुप ज़िन्दगी,
छाव है कभी, कभी है धूप ज़िन्दगी। 

ज़िन्दगी ज़िन्दगी ज़िन्दगी एक उलझी हुई पहेली हैं न ज़िन्दगी, और हम सब कहीं न कहीं इसकी किसी न किसी डोर को सुलझाने में वयस्त हैं... लेकिन क्या ये सच में सुलझती है...??? शायद न... या...शायद हाँ भी... कभी - कभी एसा होता है कि कई कोशिशों के बावजूद ये डोर  नही सुलझती है...और कभी अनजाने में ही बेगानों से जुड़ अटूट हो जाती है...

विलियम शेक्सपियर कहते हैं कि मनुष्य का जीवन विचारों के चयन का एक खेल है... (selection of thoughts) तो क्या सचमें लोग खेल खेल में इसे उलझा देते हैं...?

वहीं रॉबर्ट फ्रॉस्ट महज तीन शब्दों (life goes on) में जिन्दगी को  बयान करते हैं
 पर क्या इतनी आसानी से...??

हरिवंश राय बच्चन ने लिखा है -
जिन्दगी जख्मो से भरी है,
वक्त को मरहम बनाना सीख लो,

हारना तो है एक दिन मौत से,
फिलहाल जिन्दगी जीना सीख लो..!!
 पर दर्द का वक्त बहुत मुश्किलों से कटता है...है  न...??
फिर जिन्दगी सिर्फ कटती ही है।

तो बही गालिब कहते हैं...कुछ इस तरह से जिन्दगी को आसाँ कर लिया किसी से माफी ले ली, किसी को माफ कर दिया!!!
पर हर गलती कौन माफ करता है...हर कोइ माफी नहीं मांगता।
 

अब इतनी सारी बात इन महान लोगों से जानने लेने के बाद भी लगता है कि जिन्दगी को समझना या  समझाना सिर्फ वक्त और जिन्दगी का ही काम है।

जब कोई अपना चला जाये
जब कोई तन्हा हो  जाये
जब वे-वजह ही रिश्ते खो जाए
जब असफल मेहनत हो जाए
जब हँसती आँखें नम हो जाए
तब उलझी पहेली कैसे सुलझाए

हर किसी कि जिन्दगी के अपने अनुभवों के आधार पर अपनी परिभाषा है तो इसे सुलझाना या समझना खुद को और उलझाने जैसा है....।

शायद इसीलिए क्या खूब गाया गया है...

अबतक किसी ने ना जाना
ज़िन्दगी क्या कहती है!!!


- by Maahi Jha

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